કાલ્પનિક દુનિયામાંથી વસ્તવિકતાની ધરતી પર
રૂમઝુમ ચાલે ચાલતી મારી કવિતા નવોઢા બની
શરમાય છે....
ગુરુવાર, 19 જૂન, 2014
धोखा
अपनी अपनी हैं जिंदगी यहां........ धोखा अपनी अपनी हैं रिधम यहां........ धोखा शनिवार तेरे इन्तजारमें यादें उभरी धोखा जख्म करे नुमाइश नजर यहां रहे धोखा बिखरते अस्तित्व में हिम्मत भरे धोखा खुलके उडे जुडे पुराने पन्ने रिश्ते धोखा पीडा से आज फिर कविता जन्मी धोखा ---रेखा शुक्ला
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