કાલ્પનિક દુનિયામાંથી વસ્તવિકતાની ધરતી પર રૂમઝુમ ચાલે ચાલતી મારી કવિતા નવોઢા બની શરમાય છે....
બુધવાર, 23 ઑક્ટોબર, 2013
कबसे हैं खुशी ठेहरी
रोशनी के बाद ही वापस आना
सुरज ढल गया तब कामसे आया
शाम को गले लगाये सोया साया
ये लगाव ये धुप-छांवका द्बे पांव आना
ये तेज भागती रफ्तार का स्पीड ब्रेक होना
ताश के पत्तेके महल का पतझड पन्ने सा गिरना
हां ठहेरी हुं मैं एक आश लिये के बसंत बहार तुम आ जाना
कबसे हैं खुशी ठेहरी एक पांव पे
अब तो करीब आही जाना
---रेखा शुक्ला
BEKRARA DIL TU GAYE JA....
जापान में रजा हैं .....मालुम हैं?
एक जगह पे जाके चिल्लानेकी !!
जिसे चाहो जीतनी चाहो गाली दो..हां
कोइ परवा नहीं करता ना तो मना करता
फ्रश्ट्रेशन निकल गया हां और चल दिया
आज की महेंधाई बढे कु्छ ना कहे....?
बेंटीयां लडकीयां रेप हुये हाय निकले ?
पर चुप रहे ??? मार दि जाये और चुप रहे
मा-बाप होना भारी हैं या बच्चे बनना..???
दोनो तरफ आग ही आग है...जिसे जिंदगी कहे..?
चौराहे पे कबुतरखाना मैं फडफडाता चिल्लाता इन्सान अब
और जंगली जानवर पालतु बने और खिंचि जाये तसवीरे
फ्रीडम ओफ स्पीच की जगह क्या क्या पिंजरे मे जाये..??
--रेखा शुक्ला
આના પર સબ્સ્ક્રાઇબ કરો:
પોસ્ટ્સ (Atom)