મંગળવાર, 10 નવેમ્બર, 2015

निवाले

बस गई हैं बस्तीयां ये भी दिखावा है
आदमी की भीड में आदमी ही अकेला हैं
महेंगाईसे बाजार में थम गई उमंगे हैं
गमोंकी माला से सजा जिस्मी जनाजा हैं
निवाले की दिवाली अरे क्युं ये छलावा है
रूह में अगन और सिने मे तो हताशा है
----रेखा शुक्ला

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